चुनावी खेल शुरू! कांग्रेस के 80% उम्मीदवार मैदान से बाहर?” / Election Shock! 80% Congress Candidates Rejected — Game Start?”

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प्रस्तावना


छवि में बड़ी हायलाइट के साथ प्रश्न उठाया गया है — “चुनाव के बीच खेल शुरू? 


कांग्रेस के ८०% उम्मीदवारों का नामांकन रद्द” जैसा शीर्षक दिख रहा है। यह प्रश्न सिर्फ एक सूचना नहीं, बल्कि राजनीतिक मनो-मंज़र का संकेत है जिसमें यह सवाल उठ रहा है कि क्या चुनाव प्रक्रिया निष्पक्ष है, क्या नामांकन-तपास सही है, क्या यह सिर्फ एक मुकाबला है या लोकतंत्र की परीक्षा।

इसलिए इस विषय को तीन-चार प्रमुख खण्डों में बाँटकर देखने योग्य होगा: (१) राजनीतिक-पार्श्वभूमि, (२) मुख्य दलों एवं उनकी चुनौतियाँ, (३) वर्तमान माहौल और नामांकन-रद्दीकरण की समस्या, (४) इसके प्रभाव एवं आगे की दिशा।




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१. राजनीतिक-पार्श्वभूमि


भारत में चुनाव हमेशा से सिर्फ जनप्रतिनिधि चुनने का मामला नहीं रहे — यह सामाजिक, आर्थिक, सामुदायिक, और राजनीतिक ताकतों के टकराव का मंच भी रहे हैं। प्रमुख दलों में Indian National Congress (कांग्रेस) और Bharatiya Janata Party (भाजपा)-के बीच सामना-झगड़ा लंबे समय से जारी है।


कांग्रेस ने पारंपरिक रूप से “बहु-दलित/बहु-सामुदायिक” मंच पर काम किया है, जिसमें सामाजिक न्याय, समावेशन, राज्यों के अधिकार एवं जन-संवाद को महत्व मिला है। उदाहरण के लिए, कांग्रेस नेता Rahul Gandhi ने कहा है कि उनकी लड़ाई “विचारधारा” ( Rashtriya Swayamsevak Sangh-बाजीपी मॉडल) के खिलाफ है — क्योंकि उनका मानना है कि भारत के लोकतांत्रिक संस्थानों को कमजोर किया जा रहा है। 


वहीं भाजपा ने “विकास”, “राष्ट्रीय शक्ति”, “सुरक्षा”, “संस्कृति” जैसे विषयों को मुख्य रूप से उठाया है, और यह दावा किया है कि उसने शासन-काल में बड़े पैमाने पर बदलाव लाए हैं।


वर्तमान में, चुनावी प्रक्रिया-विचारधारा के साथ-साथ प्रक्रिया-विश्वसनीयता (electoral integrity) भी चर्चित हो रही है। विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि संस्थागत स्तर पर वोटर्स लिस्ट-नामांकन-निर्धारण-तथा चुनाव आयोग की पारदर्शिता में कमी है। उदाहरण के लिए, कांग्रेस की वेबसाइट पर “वोट चोरी” (Vote Chori) नामक अभियान भी चला है जिसमें कहा गया है: “एक विधानसभा क्षेत्र में 1 लाख से अधिक मतदाता असामान्य पाए गए”। 


इसलिए, छवि में जिस तरह “खेल शुरू ?” शीर्षक है — वह सिर्फ सामान्य चुनाव-चिंता नहीं, बल्कि यह संकेत है कि मतदाता-विश्वास, प्रक्रिया-साफ-सुथरापन, और दल-रणनीति के बीच एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।



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२. प्रमुख दलों की स्थिति और चुनौतियाँ


कांग्रेस की स्थिति


कांग्रेस आज अपनी पुरानी स्थिति में न रहने का संकट झेल रही है। उसे कई राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है और संगठनात्मक तौर पर उसे “जन-संपर्क” में कमजोरी, नेतृत्व में स्पष्टता की कमी आदि जैसी चुनौतियाँ मिल रही हैं। उदाहरण के लिए, राहुल गाँधी ने कहा है कि कांग्रेस को जनता के बीच फिर से जुड़ना पड़ेगा, संवाद बढ़ाना पड़ेगा। 


वर्तमान में यह बात सामने आ रही है कि अगर कांग्रेस को “८० % उम्मीदवार नामांकन रद्द” जैसा कथन सच है, तो उसकी तैयारी-चयन-रणनीति में बड़ी गड़बड़ी है। उम्मीदवारों का नामांकन हो — लेकिन संसाधन, समर्थन, प्रचार-मंच तैयार न हो, तो मुकाबला कठिन हो जाता है।


भाजपा की स्थिति


भाजपा राजनीतिक रूप से मजबूत स्थिति में है, विशेषकर केन्द्र और कई राज्यों में। वह संसाधनों, संगठन-शक्ति, मीडिया-रणनीति में आगे दिखती है। लेकिन इस ताकत के साथ बड़ी चुनौतियाँ भी हैं: विपक्षी आरोप, संस्थागत प्रश्न, लोकतांत्रिक प्रक्रिया-विश्वसनीयता पर सवाल। उदाहरण के लिए, विपक्ष ने Election Commission of India (ECI) के निर्णय-समय-नामांकन-मतदाता सूची-सफाई आदि पर सवाल उठाए हैं। 


इस तरह भाजपा-कांग्रेस का यह द्वंद्व सिर्फ सत्ता-लड़ाई नहीं, बल्कि लोकतंत्र-प्रक्रिया-विश्वास की लड़ाई बनता जा रहा है।



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३. नामांकन-रद्दीकरण, ‘खेल’ और वर्तमान माहौल


अब सीधे उस बिंदु पर आते हैं जिसका शीर्षक तस्वीर में है — “चुनाव के बीच खेल शुरू? कांग्रेस के ८०% उम्मीदवार का नामांकन रद्द”।


नामांकन-रद्दीकरण का क्या अर्थ हो सकता है?


नामांकन का अर्थ होता है कि एक व्यक्ति चुनाव लड़ने के लिए अपनी उम्मीदवारी पंजीकृत कराता है। यदि नामांकन रद्द हो जाता है, तो वह व्यक्ति मैदान से बाहर हो जाता है। यदि बहुत अधिक उम्मीदवारों के नामांकन रद्द हो रहे हों — जैसे कि “८०%” जैसा कथन — तो यह संकेत देता है कि उस दल की तैयारी में बड़ी चूक है: उम्मीदवारों की पात्रता, दस्तावेज़, समर्थक प्रमाण, स्थानीय तैयारी आदि में। यह संकेत हो सकता है कि वहां एक “अंदरूनी खेल” चल रहा है — उम्मीदवार-चयन, समाज-समर्थन, पार्टी-संगठन-नामांकन-संबंधी गड़बड़।


इस विषय में क्या संकेत मिल रहे हैं?


मीडिया में लिखा जा रहा है कि विपक्षी दल ECI की “SIR (Special Intensive Revision)” नामक मतदाता सूची-सफाई पर सवाल उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल सहित 12 राज्यों/संघ-क्षेत्रों में सूची-सफाई पर विवाद हो रहा है। 


कांग्रेस का “वोट चोरी” अभियान यह बताना चाहता है कि मतदाता-सूची-नामांकन-मतदान प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर असामान्यताएँ हैं। 


यदि सचमुच ८०% उम्मीदवारों का नामांकन रद्द हुआ हो — या ऐसा संदेश जनता तक पहुंच रहा हो — तो यह राजनीतिक मोर्चा भी खोलता है कि क्या यह “खेल” मानी जा रही प्रक्रिया सिर्फ मुकाबला नहीं, बल्कि टीम B बनाम टीम A जैसा कर दी गई है जहाँ उम्मीदवारों का चयन-रद्दीकरण पहले ही तय है।



क्यों यह “खेल” जैसा हो सकता है?


“खेल” शब्द यहाँ मेटाफोरिकल रूप से इस्तेमाल हुआ है — यह कहना कि चुनाव एक निष्पक्ष मुकाबले की बजाय रणनीति-नियंत्रित, समर्थक-जात-पद-नामांकन-पर निर्भर हो गया है।


जब एक दल को भारी-संख्या में नामांकन रद्द होना पड़ता है, तो जनता में यह विश्वास जग सकता है कि उसके उम्मीदवारों के आगे बढ़ने की संभावना कम है — जिससे मतदान-उत्साह कम हो सकता है।


दलों के अंदर यह संकेत मिल सकता है कि संगठन और चयन-प्रणाली नियंत्रण खो रही है — जिसकी वजह से उम्मीदवारों को देर से सूचना, समर्थन-अनुभव-वित्तीय संसाधन नहीं मिल रहे हैं।


मीडिया तथा सामाजिक मंचों में यह तरह-तरह की बातें उठ रही हैं कि प्रक्रिया-साफ-सुथर नहीं, नामांकन-फिल्टरिंग हो रही है, संस्थाएँ दबाव में हैं — इससे “खेल शुरू हो गया” जैसा आभास बनता है।



क्या यह सही भी हो सकता है?


इस तरह के दावे की पुष्टि करना आसान नहीं — ८०% का आंकड़ा सार्वजनिक स्रोतों में स्पष्ट नहीं मिला है। लेकिन इस तरह के संकेत मिल रहे हैं कि चुनाव-प्रक्रिया-संसाधनों में असमानताएँ हो रही हैं — यानी:


विपक्षी दल ECI-सफाई या सूची-संशोधन पर सवाल उठा रहा है।


उम्मीदवार-चयन-नामांकन-प्रक्रिया में पारदर्शिता-समय-सहायता-प्रशिक्षण की कमी की शिकायतें हैं।


जनता के हिस्से में यह संदेश जाता है कि “हम मैदान में नहीं उतर पा रहे” या “हमारे उम्मीदवार को समय पर समर्थन नहीं मिला”।

इस तरह, चाहे “८० %” सटीक आंकड़ा हो या न हो — महत्त्वपूर्ण यह है कि इंशान्तर बड़े स्तर पर नामांकन-रद्दीकरण या परेशानी का अनुभव दल या जनता कर रही है।




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४. प्रभाव एवं आगे की दिशा


मतदाता-विश्वास पर असर


जब उम्मीदवारी नामांकन-की प्रक्रिया में बड़े स्तर पर रुकावटें दिखें — जैसे चलते-चलते नामांकन रद्द होना, उम्मीदवार का मैदान से बाहर होना — तो यह मतदाता-विश्वास को प्रभावित करता है। मतदाता सोच सकता है कि “अगर मेरे दल के उम्मीदवार को मैदान तक लाना मुश्किल है, तो मतदान से मेरी आवाज क्यों महत्वपूर्ण है?” इससे मतदान उत्साह कम हो सकता है, विशेषकर युवा मतदाताओं और समाज-पिछड़े वर्गों में।


दलों की रणनीतियों पर असर


कांग्रेस जैसे विरोधी दल को यह संकेत मिल रहा है कि केवल ‘विपक्ष’ होना पर्याप्त नहीं — संगठनात्मक मजबूती, युवा नेतृत्व, बेहतर नामांकन-चयन, समय पर संसाधन उपलब्ध कराना जरूरी है। राहुल गाँधी की भी इसी तरह की बात रही है कि कांग्रेस को “जनता के बीच फिर से जाना होगा” और “21वीं सदी में संवाद-प्रचार-युवा नेतृत्व” बढ़ाना होगा। 


भाजपा के लिए यह मौका है कि वह इस माहौल को अपने पक्ष में इस्तेमाल करे — “हम मैदान में हैं, प्रक्रिया में पारदर्शिता लाए हैं, विपक्ष उलझा है”। लेकिन साथ ही उसे यह ख्याल रखना होगा कि संस्थागत आरोप-चिन्ह कम हों और लोकतंत्र-विश्वसनीयता बनी रहे।


लोकतंत्र एवं प्रक्रिया-सुधार पर असर


यह मामला सिर्फ एक चुनाव-प्रसंग नहीं रहा; यह उस बड़े सवाल का हिस्सा है कि भारत का लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है। यदि नामांकन-रद्दीकरण, मतदाता-सूची-सफाई, संस्थागत स्वतंत्रता ऐसे मुद्दे बन जायें — तो लोकतंत्र की प्रक्रिया-विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है। उदाहरण के लिए, वोट-चोरी के आरोप, सूची-सफाई के सवाल, नामांकन-रद्दीकरण के बड़े-बड़े आँकड़े — इनसे यह संकेत मिलता है कि चुनाव सिर्फ “एक दिन का मतदान” नहीं, बल्कि “प्रत्येक स्तर पर तैयार दल-उमीदवार-संस्थान” का परिणाम बन गए हैं।


इसलिए, सुधार-दृष्टिकोण से यह देखा जाना चाहिए कि:


मंत्रीपाल नामांकन-समय को पारदर्शी बनायें।


उम्मीदवारों के चयन-प्रक्रिया में दलों को जिम्मेदारी लेंनी होगी।


मतदाता-सूची-नाम-परिवर्तन-हटाए जाने जैसी क्रियाओं में आनंदार-सुनवाई सुनिश्चित हो।


चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, पारदर्शिता को जनता में विश्वास हो।


दल-संघटन को grassroots (जमीनी) स्तर पर सक्रियतापूर्वक काम करना होगा — सिर्फ आडंबर या बड़े घोषणाओं से काम नहीं चलेगा।



उत्तर प्रदेश-/जौनपुर-प्रसंग (विचार हेतु)


आप जौनपुर क्षेत्र में स्थित हैं — इसलिए थोड़ा स्थानीय परिप्रेक्ष्य भी महत्वपूर्ण है। यहाँ की राजनीतिक-पार्श्वभूमि में जात-समुदाय, क्षेत्रीय नेता, स्थानीय विकास-मुद्दे (सड़क-पानी-शिक्षा) की बड़ी भूमिका होती है।

यदि कांग्रेस या अन्य दलों के उम्मीदवारों का नामांकन रद्द हो रहा हो, तो इसका असर हो सकता है:


स्थानीय कार्यकर्ता demotivate हो जाएँ।


जनता को यह संदेश जाये कि मेरा दल मैदान पर नहीं है।


भाजपा समर्थक संगठन, स्थानीय नेताओं को बढ़त मिल जाये।

तो यहाँ रणनीति-बदलाव आवश्यक है — दलों को सुनिश्चित करना होगा कि उम्मीदवार-निर्धारण समय से हो, संसाधन पहुँचें, प्रचार-मंच तैयार हो, स्थानीय नुक़सान-आवश्यकताएँ समझी जाएँ।




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निष्कर्ष


इस प्रकार, छवि में उठाये गए सवाल “चुनाव के बीच खेल शुरू?” सिर्फ एक मीडिया टैगलाइन नहीं बल्कि एक बड़े राजनीतिक-प्रक्रिया-संकट का संकेत है। यदि एक बड़े दल के अधिकांश उम्मीदवारों का नामांकन रद्द हो रहा है — या यह आभास बन रहा है — तो यह सिर्फ पार्टी-तकलीफ नहीं, लोकतंत्र-प्रक्रिया की चुनौती हो सकती है।


भविष्य-दृष्टि से देखा जाए तो तीन बातें अहम हैं:


1. दलों को संगठन-तैयारी, युवा नेतृत्व, स्थानीय संपर्क, उम्मीदवार चयन-प्रक्रिया में सुधार करना होगा।



2. चुनाव-संस्थान, मतदाता-सूची-नामांकन-चैनल-समय पर होने वाली कार्रवाइयाँ पारदर्शी बननी होंगी।



3. जनता-विशेष रूप से युवा मतदाता-विश्वास को पुनः स्थापित करना होगा — यह दिखाना होगा कि मत देने की प्रक्रिया-तथा उम्मीदवार-चयन में मेरी भूमिका मायने रखती है।




अगर यह नहीं हुआ, तो चु

नाव सिर्फ “प्रतिद्वंद्विता” तक सीमित रह जाएगा और “प्रक्रिया-समीक्षा”, “नामांकन-प्रतिबंध”, “नामांकन-रद्दीकरण” जैसी बातें आगे-आगे सामने आती रहेंगी।



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