यूपी सरकार का बड़ा फैसला: 17 अति पिछड़ी जातियां SC सूची में शामिल, जारी हुआ शासनादेश, लेकिन मामला हाई कोर्ट में फंसा
📜 उत्तर प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को SC सूची में शामिल करने का विवाद: संवैधानिक बाधाएँ, कानूनी इतिहास और राजनीतिक निहितार्थ
I. प्रस्तावना: विवाद की पृष्ठभूमि
उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़ी जातियों (OBC) को अनुसूचित जाति (SC) की श्रेणी में शामिल करने का प्रयास दशकों पुराना है। यह एक ऐसा मुद्दा है जो सीधे तौर पर आरक्षण की राजनीति, संवैधानिक मर्यादाओं, और सामाजिक न्याय की धारणाओं से जुड़ा हुआ है। हाल ही में, जून 2019 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को SC श्रेणी में शामिल करने का आदेश (शासनादेश) जारी किया, जिससे यह मुद्दा एक बार फिर गरमा गया।
इस प्रयास का मुख्य उद्देश्य उन जातियों को बेहतर सामाजिक और आर्थिक लाभ सुनिश्चित करना था, जो ओबीसी श्रेणी के भीतर होने के बावजूद अत्यधिक पिछड़ेपन का शिकार हैं और आरक्षण का अपेक्षित लाभ नहीं उठा पा रही हैं। हालांकि, यह कदम संवैधानिक रूप से विवादास्पद रहा है, क्योंकि विशेषज्ञ और न्यायालय यह मानते रहे हैं कि आरक्षण सूची (SC/ST List) में बदलाव करने का अधिकार केवल भारत की संसद के पास है, न कि किसी राज्य सरकार के पास।
II. शामिल की गई 17 जातियां और उनकी सामाजिक स्थिति
जिन 17 जातियों को ओबीसी से एससी सूची में स्थानांतरित करने का प्रयास किया गया, वे मुख्य रूप से आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग हैं जो पारंपरिक रूप से जल, मिट्टी, या श्रम आधारित कार्यों से जुड़े रहे हैं।
A. सूचीबद्ध 17 जातियां
वे जातियां जिनके नाम शासनादेश में शामिल किए गए:
कहार (पानी भरने वाले)
कश्यप (नाविक, मछुआरे)
केवट (नाविक)
मल्लाह (नाविक)
निषाद (मछुआरे, नाविक)
राजभर (श्रम और खेती से जुड़े)
प्रजापति (कुम्हार) (मिट्टी के बर्तन बनाने वाले)
धीमर (मछुआरे, जल कार्य)
बाथम (जल कार्य से जुड़े)
तुरहा (तुरैया)
गौड़
बिंद
मांझी (नाविक)
मछुआरा
भर
गोड़िया
चैहान (कुछ सूचियों में 'पोटर' या 'नोनिया' भी शामिल हैं)
B. स्थानांतरण का कारण (Rationale for Transfer)
यह जातियां ओबीसी वर्ग में होते हुए भी यादव, कुर्मी, और जाट जैसी प्रभुत्वशाली जातियों के वर्चस्व के कारण आरक्षण का पर्याप्त लाभ नहीं उठा पाती हैं। राज्य सरकार का तर्क यह रहा है कि इन जातियों को एससी वर्ग में शामिल करने से उन्हें शिक्षा, सरकारी नौकरियों और अन्य योजनाओं में सीधा लाभ मिलेगा, जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार होगा।
III. संवैधानिक और कानूनी आधार: क्यों आया विवाद?
इस पूरे मामले का मूल विवाद भारत के संविधान और आरक्षण सूची में बदलाव की प्रक्रिया में निहित है।
A. संविधान का अनुच्छेद 341
आरक्षण सूची में बदलाव से संबंधित मुख्य प्रावधान संविधान का अनुच्छेद 341 है।
{अनुच्छेद 341(1)}
यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में, राज्यपाल के परामर्श के बाद, उन जातियों, नस्लों या जनजातियों के समूहों को निर्दिष्ट करने की शक्ति देता है जिन्हें अनुसूचित जातियां (SCs) माना जाएगा।
{अनुच्छेद 341(2)}
यह अनुच्छेद स्पष्ट करता है कि संसद, कानून द्वारा, राष्ट्रपति की अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कर सकती है या हटा सकती है।
निष्कर्ष: संविधान के तहत, अनुसूचित जातियों की केंद्रीय सूची (Central List of SCs) में किसी भी प्रकार के बदलाव (जाति को जोड़ना या हटाना) का अनन्य अधिकार (Exclusive Authority) केवल भारत की संसद के पास है। राज्य सरकार के पास ऐसी सूची में बदलाव करने की कोई शक्ति नहीं है। राज्य सरकार केवल सिफारिश कर सकती है।
B. न्यायालयों के पूर्व फैसले
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर कई बार स्पष्टीकरण दिया है:
इंदिरा साहनी वाद (मंडल कमीशन केस) (1992): हालांकि यह ओबीसी आरक्षण से संबंधित था, लेकिन इसने आरक्षण और वर्गीकरण की सीमाओं को स्पष्ट किया।
सत्य पाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015): इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पहले ही एक समान आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकार के पास आरक्षण सूची में बदलाव का कोई अधिकार नहीं है।
उत्तर प्रदेश के फैसले पर हाई कोर्ट का रुख (2019): जून 2019 के शासनादेश के खिलाफ याचिका दायर होने पर, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अगस्त 2019 में इस आदेश पर रोक (Stay) लगा दी थी। हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार द्वारा जारी एससी प्रमाण पत्र गैर-कानूनी है और केवल संसद ही ऐसा बदलाव कर सकती है।
राज्य सरकार का आदेश, इसलिए, असंवैधानिक और शून्य (Void) घोषित किए जाने की प्रबल संभावना थी।
IV. अतीत के प्रयास: अन्य सरकारों की पहल
यह पहला मौका नहीं था जब यूपी में ऐसा प्रयास किया गया।
प्रयास परिणाम
राजनाथ सिंह सरकार (भाजपा) 2002 17 OBC जातियों को SC सूची में डालने की सिफारिश की। केंद्र सरकार ने अस्वीकार कर दिया।
मुलायम सिंह यादव सरकार (सपा) 2005 OBC की 11 जातियों को SC में डालने का आदेश दिया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने असंवैधानिक बताकर रद्द कर दिया।
मायावती सरकार (बसपा) 2007 केंद्र सरकार को पुनः वर्गीकरण (Reclassification) के लिए सिफारिश भेजी। केंद्र ने कानूनी बाधाओं का हवाला देते हुए अस्वीकार कर दिया।
योगी आदित्यनाथ सरकार (भाजपा) 2019 17 जातियों को SC में शामिल करने का शासनादेश जारी किया। हाई कोर्ट ने आदेश पर रोक लगाई।
यह इतिहास दर्शाता है कि हर बड़ी पार्टी ने राजनीतिक लाभ के लिए यह प्रयास किया, लेकिन संवैधानिक अवरोध के कारण ये प्रयास सफल नहीं हो पाए।
V. राजनीतिक निहितार्थ और वोट बैंक की राजनीति
इस कदम के पीछे गहन राजनीतिक समीकरण निहित हैं।
A. OBC वोट बैंक का विभाजन
उत्तर प्रदेश में ओबीसी आबादी लगभग 52% है। इसमें यादव (लगभग 10%) और कुर्मी (लगभग 6%) जैसी प्रभावशाली जातियां हैं।
अति पिछड़ों को साधने की रणनीति: 17 जातियां, जिन्हें अति पिछड़ा माना जाता है, OBC आरक्षण (27%) का पर्याप्त लाभ नहीं उठा पातीं। उन्हें एससी सूची में डालने का वादा करके, राजनीतिक दल एक बड़े गैर-यादव ओबीसी (Non-Yadav OBC) वोट बैंक को एकजुट करने की कोशिश करते हैं।
SC वोट बैंक में सेंध: इस कदम का उद्देश्य अनुसूचित जाति वर्ग (जो लगभग 21% है और परंपरागत रूप से बसपा का मुख्य आधार रहा है) में विभाजन पैदा करना भी था।
B. सामाजिक न्याय या चुनावी लाभ?
आलोचकों का तर्क है कि यदि सरकार वास्तव में सामाजिक न्याय चाहती है, तो उसे केंद्र सरकार पर संसदीय संशोधन के लिए दबाव बनाना चाहिए था, न कि असंवैधानिक रूप से शासनादेश जारी करना चाहिए था, जिसका रद्द होना निश्चित था। शासनादेश जारी करना एक प्रतीकात्मक कदम था ताकि इन जातियों के बीच यह संदेश जाए कि सरकार ने उनके लिए प्रयास किया, भले ही वह कानूनी रूप से टिकाऊ न हो।
VI. प्रभाव और संभावित भविष्य
A. SC आरक्षण पर दबाव
यदि यह प्रयास सफल होता, तो SC सूची में शामिल होने वाली जातियों की संख्या बढ़ जाती, जिससे मौजूदा अनुसूचित जातियों (SCs), जैसे जाटव, पासी, आदि को मिलने वाले आरक्षण लाभ पर सीधा दबाव पड़ता। यह आरक्षण के भीतर आंतरिक वर्गीकरण (Sub-Categorization) की मांग को भी बढ़ा सकता था।
B. निष्कर्ष और भविष्य की राह
उत्तर प्रदेश सरकार का 17 जातियों को एससी सूची में शामिल करने का फैसला एक अधिकार क्षेत्र से बाहर का कदम (Ultra Vires) था। संविधान के प्रावधानों और न्यायालयों के फैसलों के आलोक में, यह स्पष्ट है कि इस सूची में बदलाव का एकमात्र वैध तरीका संसद द्वारा संविधान संशोधन है।
वर्तमान स्थिति (2025 के संदर्भ में): हाई कोर्ट का स्टे जारी है। केंद्र सरकार ने भी स्पष्ट किया है कि राज्य सरकार का आदेश केंद्रीय सूची के खिलाफ है। इन जातियों को SC प्रमाण पत्र जारी नहीं किए जा रहे हैं। यदि राज्य सरकार इन जातियों को SC का लाभ दिलाना चाहती है, तो उसे केंद्र सरकार के माध्यम से संसद में कानून पास कराना होगा।
VII. मुख्य निष्कर्ष (Key Takeaways)
मामला: यूपी की 17 अति पिछड़ी जातियों को SC सूची में डालने का राज्य सरकार का आदेश।
संवैधानिक बाधा: संविधान का अनुच्छेद 341(2) स्पष्ट करता है कि केवल संसद ही SC सूची में बदलाव कर सकती है।
न्यायिक स्थिति: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2019 में इस आदेश पर रोक (Stay) लगा दी थी, इसे असंवैधानिक बताया।
राजनीति: यह कदम एक बड़े गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक को साधने और सामाजिक न्याय का संदेश देने की राजनीतिक
रणनीति थी, भले ही यह कानूनी रूप से विफल हो गया।
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