“विधेयकों पर राज्यपाल-राष्ट्रपति की स्वविवेकाधीन स्वीकृति पर रोक: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया—संविधान अनुमति नहीं देता ‘अनिर्धारित होल्ड’”
भूमिका: भारतीय लोकतंत्र में एक ऐतिहासिक फैसला
भारतीय संविधान राज्य के तीन प्रमुख स्तंभ—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—के बीच संतुलन बनाए रखने पर आधारित है। इसी संतुलन को मजबूत करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति विधेयकों को स्वीकृति देने में अनिश्चितकाल तक विलंब नहीं कर सकते और न ही किसी विधेयक को अपनी इच्छा से रोककर रख सकते हैं।
यह फैसला न केवल संवैधानिक सीमाओं को स्पष्ट करता है, बल्कि उन राज्यों के लिए भी निर्णायक है जहाँ पिछले कुछ वर्षों में राज्यपाल और चुनी हुई सरकारों के बीच तनाव बढ़ा है।
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फैसले की पृष्ठभूमि
पिछले कई वर्षों से विभिन्न राज्यों में अक्सर ऐसी स्थितियाँ सामने आईं जहाँ राज्य सरकारों द्वारा पारित विधेयक महीनों या कई बार वर्षों तक राज्यपालों के पास लंबित पड़े रहे। कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के पास आरक्षण के नाम पर भेज दिया गया, और वहाँ भी प्रक्रिया अनिश्चित काल तक रुकी रही।
ऐसे मामलों में राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कई मामलों में कोर्ट ने कहा था कि राज्यपालों को संवैधानिक दायित्वों के तहत “उचित समय” में निर्णय लेना चाहिए। लेकिन “उचित समय” की परिभाषा स्पष्ट नहीं थी।
अब सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार इस मुद्दे पर स्पष्ट संवैधानिक व्याख्या की है।
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सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणी: “स्वतंत्र स्वीकृति का अधिकार नहीं”
न्यायालय के अनुसार:
1. संविधान राज्यपाल या राष्ट्रपति को ऐसी कोई शक्ति नहीं देता कि वे विधेयकों पर अनंत समय तक चुप्पी साधे रहें।
2. अनुच्छेद 200 और 201 में केवल चार ही विकल्प दिए गए हैं:
विधेयक को मंजूरी देना
विधेयक को अस्वीकार करना
पुनर्विचार के लिए वापस भेजना
राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए आरक्षित करना
3. इनमें से किसी भी विकल्प में “लंबित रखना” जैसा शब्द नहीं है।
4. अतः “देर करना अपनी आप में एक असंवैधानिक प्रक्रिया है।”
5. “राज्यपाल लोकतांत्रिक इच्छा के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि संवैधानिक पदाधिकारी हैं—और उनका निर्णय संवैधानिक मर्यादाओं के भीतर होना चाहिए।”
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अनुच्छेद 200 व 201 की विस्तृत व्याख्या
अनुच्छेद 200 (Governor’s Assent to Bills)
यह अनुच्छेद राज्यपाल को चार विकल्प देता है:
मंजूरी देना
मंजूरी न देना
पुनर्विचार के लिए वापस भेजना
राष्ट्रपति के पास भेजना
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन चार विकल्पों के बाहर कोई ‘फ्रीज़ पावर’ नहीं है।
अनुच्छेद 201 (Bills Reserved for President)
यदि कोई बिल राष्ट्रपति के पास जाता है, तो राष्ट्रपति भी अनिश्चित समय तक रोककर नहीं रख सकते।
कोर्ट ने कहा—“अनुच्छेद 201 का उद्देश्य प्रक्रियात्मक है, न कि असीमित शक्ति का स्रोत।”
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फैसला क्यों आया?—पूरी कानूनी प्रक्रिया की कहानी
यह मामला मूलतः कुछ राज्यों में बार-बार शिकायत मिलने के कारण उत्पन्न हुआ।
कई राज्यों ने कहा कि:
राज्यपाल विधेयक को वापस करने के बजाय महीनों फाइल रख लेते हैं
कुछ बिल राष्ट्रपति के पास भेज दिए जाते हैं, जहाँ उनका निपटान सालों तक नहीं होता
सरकारें नहीं जान पाती कि कानून लागू हुआ या नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कठोर रुख अपनाते हुए कहा—
“संविधान में न राज्यपाल और न ही राष्ट्रपति को ऐसी कोई ‘डेडलॉक पावर’ दी गई है जिससे विधायिका द्वारा पारित विधेयक रुक जाए।”
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लोकतंत्र के सिद्धांत पर जोर
कोर्ट ने कहा—
लोकतंत्र में विधायिका जनता की प्रतिनिधि है।
राज्यपाल केवल संवैधानिक प्रमुख हैं, न कि चुने हुए प्रतिनिधि।
इसलिए कोई भी प्रक्रिया जो चुनी हुई सरकार को कमजोर करे—संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि:
“राज्यपाल या राष्ट्रपति का काम विधायी प्रक्रिया का सम्मान करना है, न कि उस प्रक्रिया को बाधित करना।”
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“मंजूरी पर समय सीमा तय नहीं की जा सकती”—लेकिन देर भी नहीं की जा सकती
यह महत्वपूर्ण भाग है।
कोर्ट ने यह कहा:
यह संभव नहीं है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए कोई ‘निश्चित समय सीमा’ तय कर दी जाए।
क्योंकि परिस्थितियाँ भिन्न होती हैं।
लेकिन साथ ही यह भी कहा कि:
“अनिश्चित समय तक रोकना भी अस्वीकार्य है।”
यानी समय सीमा नहीं दी जा सकती, लेकिन “असंगत देरी” को संवैधानिक नहीं माना जाएगा।
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राजनीतिक पृष्ठभूमि और इससे जुड़े विवाद
कई राज्यों में पिछले वर्षों में ऐसे विवाद बढ़े:
केरल
तमिलनाडु
पंजाब
दिल्ली (LG बनाम राज्य सरकार)
पश्चिम बंगाल
तेलंगाना
इन सभी राज्यों में राज्यपालों और सरकारों के बीच विधेयकों को लेकर तनाव बना।
कुछ मामलों में बिल महीनों तक हस्ताक्षर के इंतजार में रहे।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने ऐसे विवादों पर स्पष्ट दिशा दे दी है।
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फैसले का प्रभाव
यह फैसला कई मायनों में भारतीय लोकतंत्र में बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है—
1. राज्यों की विधायिकाओं को मजबूती
चुनी हुई सरकारें अब यह नहीं कह सकेंगी कि उनके कानून राज्यपाल के पास अटके हैं।
2. राज्यपालों की भूमिका सीमित
अब राज्यपाल स्वेच्छा से विधेयकों को रोक नहीं सकेंगे।
3. राष्ट्रपति की शक्ति भी व्याख्यायित
राष्ट्रपति की स्वीकृति भी “वाजिब समय” में दी जानी चाहिए।
4. संघीय ढांचे को मजबूती
केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन बेहतर होगा।
5. राजनीतिक विवादों में कमी
राजनेता राज्यपालों के खिलाफ संवैधानिक शक्तियों के दुरुपयोग के आरोप अक्सर लगाते थे—यह फैसला उन विवादों को कम करेगा।
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सुप्रीम कोर्ट की दृढ़ टिप्पणी
पीठ ने कहा—
**“विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोककर रखना—संविधान की भावना के विपरीत है।
यह न तो लोकतंत्र का हिस्सा है और न ही संवैधानिक प्रक्रिया का।”**
कोर्ट ने यहाँ यह भी कहा कि:
राज्यपाल चुनी हुई सरकार को “नीतिगत रूप से जज” नहीं कर सकते
उनकी भूमिका सलाहकार नहीं, प्रक्रियात्मक है
वे सरकार के निर्णयों को रोकने का माध्यम नहीं बन सकते
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राजनीतिक और संवैधानिक विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया
विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला:
संघीय ढांचे को मजबूती देगा
राज्यपालों की भूमिका को सीमित करेगा
केंद्रीय-राज्य विवादों में पारदर्शिता लाएगा
कई संवैधानिक विद्वानों ने कहा कि यह फैसला भविष्य में विधेयकों के लंबित रहने की समस्या को काफी हद तक खत्म कर देगा।
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बिलों को “ब्लैक बॉक्स” में नहीं रख सकते—कोर्ट की सख्त चेतावनी
सुप्रीम कोर्ट ने बेहद कड़े शब्दों में कहा:
“विधेयक राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास कोई ‘ब्लैक बॉक्स’ में नहीं जा सकते, जहाँ उनका कोई भविष्य न हो।”
हर निर्णय स्पष्ट और समयबद्ध होना चाहिए—यही संविधान की आत्मा है।
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इस फैसले का भविष्य पर प्रभाव
यह फैसला आने वाले वर्षों में भारत की राजनीति, शासन और संवैधानिक प्रक्रियाओं को गहराई से प्रभावित करेगा।
अब राज्यपालों के लिए:
कानून रोकना
फाइल लंबित रखना
महीनों तक कोई निर्णय न देना
संवैधानिक रूप से चुनौतीपूर्ण होगा।
वहीं, राज्य सरकारों के लिए भी यह संकेत है कि:
वे विधायी प्रक्रिया में जल्दबाजी न करें
संविधान की औपचारिकताओं का पालन करें
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निष्कर्ष: भारतीय लोकतंत्र में पारदर्शिता और संतुलन की जीत
इस फैसले ने यह सिद्ध कर दिया कि:
लोकतंत्र की असली शक्ति विधायिका के पास है
रा
ज्यपाल और राष्ट्रपति प्रक्रिया के संरक्षक हैं, निर्णायक नहीं
विधायी प्रक्रिया को रोकने या धीमा करने का कोई भी कदम संविधान की भावना के विरुद्ध है
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र को अधिक मजबूत, पारदर्शी और संविधान आधारित बनाने की दिशा में ऐतिहासिक है।
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